मेंहदावल की यात्रा




आज़ादी के पहले से ही हल्दी, सोंठ और नील के उन्नत व्यापार को लेकर अलग पहचान रखने वाले मेहदावल कस्बे के साथ हिंदी साहित्य का गौरवशाली संस्मरण जुड़ा है। यहां के बाजारों का नामकरण हिंदी साहित्य के पुरोधा भारतेंदु हरिश्चंद्र ने किया था। उन्होंने मेहदावल यात्रा के समय यहां रुके थे और बाजारों का भ्रमण कर नामकरण किया।
हिंदी साहित्य के उज्ज्वल नक्षत्र रहे भारतेंदु हरिश्चंद्र 1881 में एक निजी यात्रा में यहां आए थे। अपनी निजी पालकी से आए भारतेंदु को यहां के बाजारों का स्वरूप देखकर बड़ी प्रसन्नता हुई। रात्रि के समय में बाजार में लगे लकड़ी के खंभों पर दीपक जलता देख उनको यहां की व्यापारिक स्थिति समुन्नत होने का आभास हुआ। कस्बे के ही सम्मानित लोगों से मिलने के दौरान उन्हें पता चला कि नगर के चारों तरफ पोखरे तथा मंदिर हैं। उन्होंने अपनी मेहदावल यात्रा के बारे में अपने लेखों और कविताओं में वर्णन भी किया है।

उत्तरपट्टी मुहल्ले के सेठ भदई प्रसाद के यहां उन्होने रात्रि विश्राम किया था। स्व. भदई प्रसाद के सत्तर वर्षीय पुत्र योगेंद्र प्रसाद का कहना है कि बाबूजी भारतेंदु जी के मेहदावल आने के बारे में बराबर चर्चा किया करते थे। कस्बे की सुंदरता से वह इतने प्रभावित हुए थे कि अगले दिन कुबेरनाथ मंदिर के परिसर में ही सबके साथ बैठकर बाजारों को नाम देने का कार्य किया था। उन्हीं का दिया नाम सुर्ती हट्टा, बर्तनहिया, हर्दीहट्टा, अंजहिया आदि आज भी प्रचलन में हैं। यात्रा पूरी कर वापस जाते समय जिला मुख्यालय बस्ती पहुंचे तो यहां रास्ते की दुर्दशा देखकर हरिश्चंद्र ने व्यंग्य में कहा था, बस्ती को बस्ती कहूं, काकौ कहूं उजाड़ 

नहीं लग  सकी प्रतिमा - 

विडंबना है कि भारतेंदु हरिश्चंद्र की यात्रा का संस्मरण मात्र लोगों की जेहन में है। प्रशासन की उपेक्षा के चलते आज तक एक भी स्थान का नामकरण उनके नाम से नहीं किया गया है। उनकी कोई प्रतिमा भी नहीं स्थापित की जा सकी है। हालांकि साहित्यकार अयोध्या प्रसाद गुप्त ने इस संबंध में कई बार प्रयास किया था।


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